ये बात है उस ज़माने की ,
जब हर सुबह चेहरे पे एक मुस्कुराहट सज जाती थी.
और बाहे फेलाए,
एक ज़िन्दगी हमारा इंतज़ार करती थी.
कहती थी , “चल चले मुसाफिर , इस हसीन सफ़र पर ”
हम भी खिलखिला उठते थे ,
चल पड़ते थे ,
हर नए दिन को जीने ,
जीवन रस को पीने .
रंग इतने रंगीन लगते थे ,
नज़ारे इतने हसीन .
बिन कुछ कहे हस पड़ते थे ,
आँखों में एक चमक रहती थी
अब हर सुबह उठते है ,
तैयार तो होते है सर से पाँव तक ,
बस इस चेहरे ने पहनी नहीं होती ,
उस गुज़रे ज़माने की मुस्कराहट
जीवन रस का घड़ा ,
शायद हो गया खाली.
अब तोह इन् कडवे जाम के प्यालो मे,
ढुंते है जिंदगानी
क्या हुआ उस ज़माने का ,
किसे पता ?
उस हसीन ज़िन्दगी को ,
कोई ढूंढे भला ...
5 comments:
What a wonderful poem! Loved the melancholic reflection. We all have such moments every now and then.
Itni sundarta se shabdo ko piroya gaya hai ki jaise lagta hai laajawab nahi kaha toh kya kaha. :)
Excellently expressed.This is what actually happens at one time.
Keep it up!
The sad note it ends on..
Lovely.
I realize it's such a long time that I've actually read such a beautiful hindi poetry.
Thanks all.
:)
It has been a long time i am reading a poem in hindi
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